अतिरिक्त >> नई सदी की कहानियाँ नई सदी की कहानियाँकृष्ण कुमार चड्डा
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नई सदी की कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
बीती हुई सदी तो बस वक्त के बदलते पैमाने का उदाहरण देने के लिए रह जाती है। लेकिन मेरे लिए यह सदी कभी बीती नहीं। मैं हमेशा उसी में जिया क्योंकि मेरे जन्म के साथ ही एक ‘नई सदी’ की शुरुआत हो रही थी। लाहौर। जनवरी ६, सन् १९३८। मेरा जन्मदिवस । इसी दिन मेरे पिता श्री ख़ुश्तर गिरामी उर्फ राम रक्खा मल चड्डा ने ‘बीसवीं सदी’ का पहला अंक प्रकाशित किया। ‘बीसवीं सदी’ का वह पहला अंक मेरे पहले जन्मदिन का तोहफ़ा था और मैंने हमेशा उस तोहफ़े की हिफाजत बड़ी ही शिद्दत के साथ की। मेरे पिताजी बताते थे कि उस दौर में अंग्रेज़ी राज हमें किसी भी तौर पर मुँह खोलने की इजाजत नहीं देता था और जब बीसवीं सदी का प्रकाशन हुआ तो ‘डी’ (किसी भी प्रकाशन के लिए बरतानिया सरकार के पास रजिस्टेरशन) नम्बर न लेने के कारण सरकार ने उन पर मुकदमा कर दिया। पिताजी के पास इतने पैसे न थे। मेरी माता के गहने गिरवी रखकर १०,००० रुपयों का इन्तजाम हुआ और पिताजी जमानत पर रिहा हुए।
लाहौर में ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर शालमी दरवाज़े के पास था। दफ़्तर के बाहर एक बहुत बड़े बोर्ड पर उर्दू में बीसवीं सदी लिखा था। जब मैं पिताजी के साथ दफ़्तर जाता, तो एक बात पर ग़ौर करता कि पिताजी दफ़्तर आते-जाते थोड़ी देर रुककर उस बोर्ड की ओर ज़रूर देखते। दफ़्तर के एक तरफ मन्दिर था और दूसरी तरफ मस्जिद। विभाजन के समय मन्दिर और मस्जिद दोनों जला दिये गये पर ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर बचा रहा। हमने बीसवीं सदी के दफ़्तर के बाहर फैली हुई आग का वह मंज़र कभी नहीं देखा, लेकिन उस दौर की तल्ख़ी मैंने हमेशा पिताजी की आंखों और बातों में महसूस की।
विभाजन के समय हम सब लोग गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने लहौजी गये हुए थे और फिर वापस लाहौर न जा सके। शायद नियति को यही मंजूर था। मुझे याद है कि शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह काले पानी की सजा काटकर १४ अगस्त १९४७ को डलहौजी आये और हमारे घर ठहरे। यहीं पर उनका निधन हुआ। उनकी समाधि आज भी डलहौजी में है।
भारत और पाकिस्तान, अब दो मुल्क हो चुके थे और दोनों ही विपाजन की आग में जल रहे थे। नफरत की यह आग इस तरह फैल चुकी थी कि अब पाकिस्तान से हिन्दुओं को रुपया ले जाने की सख़्त मनाही थी। इसलिए हमारे पास सरहद के उस पार से पैसे नहीं आ सकते थ। लेकिन नफरत की यह आग दोनों मुल्कों की सियासत के बीच में थी, आवाम के बीच में नहीं। पाकिस्तान में पिताजी के एक दोस्त थे शालिक मोहम्मद, वो उस दौर में पाकिस्तान में मन्त्री थे, उन्होंने एक-एक रुपया करके चालीस हजार की रकम डलहौजी भेजी। इसी रकम से बीसवीं सदी दिल्ली में दोबारा प्रकाशित की जाने लगी।
विभाजन के बाद कई तरह की मुश्किलें आने लगीं। पिताजी किसी रास्ते की तलाश में थे और इसी सन्दर्भ में वे इलाहाबाद में मित्रा साहब से मिले। मित्रा साहब उस समय इलाहाबाद से ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ प्रकाशित कर रहे थे। मित्रा साहब ने पिताजी को अपना प्रेस और रहने के लिए कोठी देने का प्रस्ताव रखा। पिताजी ने इस प्रस्ताव को काफी विमर्श के बाद अस्वीकार किया क्योकि दिल्ली अब तक हिन्दुस्तान की राजधानी बन चुकी थी और वे वही से ‘बीसवीं सदी’ का प्रकाशन करना चाह रहे थे।
दिल्ली में उस दौर में ज़्यादा लेखक न थे। एक भद्र पुरुष, भूषण बनमाली नाम बदल-बदलकर विभिन्न अनुच्छेद लिखा करते थे। बाद में ये महाशय हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़ गये और गुलज़ार साहब के लिए इन्होंने कई गाने भी लिखे।
बीसवीं सदी के कुछ अंकों में एक कहानीकार ‘आसी रामनगरी’ ने कई कहानियाँ छद्य नामों से लिखी थीं। बाद में उनके एक छद्म नाम ‘कृष्णा कुमारी’ के नाम से लिखी कहानियों को ‘मेरे सपने’ शीर्षक देकर एक किताब के तौर पर प्रकाशित किया गया। यह किताब काफी चर्चित रही और ख़ूब बिकी भी।
प्रसिद्ध कहानीकार कृष्ण चन्दर को ‘बीसवीं सदी’ ने पहली बार प्रकाशित किया था। उनकी कहानी ‘अन्नदाता’ का रूसी संस्करण बहुत बाद में रूसी जुबान में प्रकाशित हुआ था।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दिल्ली के प्रसिद्ध कहानीकार श्री कमलेश्वर की एक कहानी पहली बार उर्दू में ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी थी। ‘बीसवीं सदी’ उर्दू का पहला रिसाला था जो ए.एच. हीलर में रेलवे बुक स्टॉलों पर बिकना शुरू हुआ था।
अब तक ‘बीसवीं सदी’ दिल्ली में स्थापित हो गया था और धीरे- धीरे उर्दू के तक़रीबन सभी कहानीकार ‘बीसवीं सदी’ में छपने लगे थे। इनमें से कृष्ण चन्दर, बलवन्त सिंह और अमृता प्रीतम प्रमुख थे। उस समय ‘बीसवीं सदी’ की ४०,००० प्रतियाँ हर महीने छप रही थीं, जो किसी भी अखबार के लिए प्रशंसनीय था। बलवन्त सिंह हमारे निजामुद्दीन वाले घर के ‘आउट हाउस’ में रहते और मेरे पिता श्री ख़ुश्तर गिरामी जी रोज एक बॉटल स्कॉच की बलवन्त सिंह को देते थे। मुझे वो शाम याद आती है, जब अमृता प्रीतम हमारे निजामुद्दीन वाले घर खाने पर आयी थी और मेरी माताजी के बनाये हुए चिकन की बहुत तारीफ़ की थी। बाद में मैं अमृता जी को कार से उनके घर हौज खास छोड़ने गया।
यादों की यह डोर बड़ी लम्बी है, इसी कड़ी में एक और नाम याद आता है साहिर लुधियानवी का। साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों पहली बार ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी और बाद में उसे फ़िल्माया भी गया।
राजा मेहदी अली ख़ान जिन्होंने फिल्मों में कई मशहूर गीत लिखे ‘बीसवीं सदी’ में अपनी ताजा गज़ल हमेशा छपने के लिए देते थे।
एक बड़ा ही मजेदार वाकया जो मजेदार के साथ-साथ अबूझ भी रहा। उर्दू के प्रसिद्ध शायर नरेश कुमार ‘शाद’ एक बार नशे की हालत में ‘बीसवीं सदी’ के दफ़्तर आये और मेरी मेज़ पर पेशाब करके बिना कुछ बोले चले गये।
१९६० के दशक तक हिन्दी भारत में सबसे पसंदीदा जुबान बन चुकी थी। देश के संविधान ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया था। अब तक मेरी उम्र तकरीबन २२ वर्ष हो चली थी और मैं सक्रियता के साथ ‘बीसवीं सदी’ के प्रकाशन में पिताजी का सहयोग करने लगा था। एक दिन मैंने पिताजी के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘बीसवीं सदी’ को और लोगों तक पहुँचाने के लिए अब जरूरी हो चला है कि इसका प्रकाशन हिन्दी ज़ुबान में भी किया जाये। पिताजी को यह प्रस्ताव पसन्द आया। इस तरह एक नये सफर की शुरुआत हुई और ‘बीसवीं सदी’ का हिन्दी में प्रकाशन ‘नई सदी’ नाम से शुरू हुआ। वे सभी लेखक जो ‘बीसवीं सदी’ के साथ जुड़े थे मसलन बलवन्त सिंह, कृष्ण चन्दर, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह। उनका सहयोग तो ‘नई सदी’ के लिए बना ही रहा साथ ही कुछ लेखक जैसे फिक्र तौसवीन, जफ़र पयामी, कन्हैया लाल कपूर, हाज़रा मज़रूफ़, मनमथ गुप्ता, डॉ० गोविन्द चातक व अन्य भी हमारे साथ जुड़े। हमारी इन कोशिशों को बल देने के लिए मैं इन सभी का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
लम्हे-लम्हे जुड़कर ही सदियाँ बनाते हैं। ऐसी ही छोटे-बड़े लम्हे मिलकर एक सफर को बीसवीं सदी से नई सदी तक लेकर आये। वह दौर और उससे जुड़े हर वाकये मेरी रूह में बसें हैं, जो मेरे साथ ही रहेंगे। हमेशा। हर घड़ी...
लाहौर में ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर शालमी दरवाज़े के पास था। दफ़्तर के बाहर एक बहुत बड़े बोर्ड पर उर्दू में बीसवीं सदी लिखा था। जब मैं पिताजी के साथ दफ़्तर जाता, तो एक बात पर ग़ौर करता कि पिताजी दफ़्तर आते-जाते थोड़ी देर रुककर उस बोर्ड की ओर ज़रूर देखते। दफ़्तर के एक तरफ मन्दिर था और दूसरी तरफ मस्जिद। विभाजन के समय मन्दिर और मस्जिद दोनों जला दिये गये पर ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर बचा रहा। हमने बीसवीं सदी के दफ़्तर के बाहर फैली हुई आग का वह मंज़र कभी नहीं देखा, लेकिन उस दौर की तल्ख़ी मैंने हमेशा पिताजी की आंखों और बातों में महसूस की।
विभाजन के समय हम सब लोग गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने लहौजी गये हुए थे और फिर वापस लाहौर न जा सके। शायद नियति को यही मंजूर था। मुझे याद है कि शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह काले पानी की सजा काटकर १४ अगस्त १९४७ को डलहौजी आये और हमारे घर ठहरे। यहीं पर उनका निधन हुआ। उनकी समाधि आज भी डलहौजी में है।
भारत और पाकिस्तान, अब दो मुल्क हो चुके थे और दोनों ही विपाजन की आग में जल रहे थे। नफरत की यह आग इस तरह फैल चुकी थी कि अब पाकिस्तान से हिन्दुओं को रुपया ले जाने की सख़्त मनाही थी। इसलिए हमारे पास सरहद के उस पार से पैसे नहीं आ सकते थ। लेकिन नफरत की यह आग दोनों मुल्कों की सियासत के बीच में थी, आवाम के बीच में नहीं। पाकिस्तान में पिताजी के एक दोस्त थे शालिक मोहम्मद, वो उस दौर में पाकिस्तान में मन्त्री थे, उन्होंने एक-एक रुपया करके चालीस हजार की रकम डलहौजी भेजी। इसी रकम से बीसवीं सदी दिल्ली में दोबारा प्रकाशित की जाने लगी।
विभाजन के बाद कई तरह की मुश्किलें आने लगीं। पिताजी किसी रास्ते की तलाश में थे और इसी सन्दर्भ में वे इलाहाबाद में मित्रा साहब से मिले। मित्रा साहब उस समय इलाहाबाद से ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ प्रकाशित कर रहे थे। मित्रा साहब ने पिताजी को अपना प्रेस और रहने के लिए कोठी देने का प्रस्ताव रखा। पिताजी ने इस प्रस्ताव को काफी विमर्श के बाद अस्वीकार किया क्योकि दिल्ली अब तक हिन्दुस्तान की राजधानी बन चुकी थी और वे वही से ‘बीसवीं सदी’ का प्रकाशन करना चाह रहे थे।
दिल्ली में उस दौर में ज़्यादा लेखक न थे। एक भद्र पुरुष, भूषण बनमाली नाम बदल-बदलकर विभिन्न अनुच्छेद लिखा करते थे। बाद में ये महाशय हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़ गये और गुलज़ार साहब के लिए इन्होंने कई गाने भी लिखे।
बीसवीं सदी के कुछ अंकों में एक कहानीकार ‘आसी रामनगरी’ ने कई कहानियाँ छद्य नामों से लिखी थीं। बाद में उनके एक छद्म नाम ‘कृष्णा कुमारी’ के नाम से लिखी कहानियों को ‘मेरे सपने’ शीर्षक देकर एक किताब के तौर पर प्रकाशित किया गया। यह किताब काफी चर्चित रही और ख़ूब बिकी भी।
प्रसिद्ध कहानीकार कृष्ण चन्दर को ‘बीसवीं सदी’ ने पहली बार प्रकाशित किया था। उनकी कहानी ‘अन्नदाता’ का रूसी संस्करण बहुत बाद में रूसी जुबान में प्रकाशित हुआ था।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दिल्ली के प्रसिद्ध कहानीकार श्री कमलेश्वर की एक कहानी पहली बार उर्दू में ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी थी। ‘बीसवीं सदी’ उर्दू का पहला रिसाला था जो ए.एच. हीलर में रेलवे बुक स्टॉलों पर बिकना शुरू हुआ था।
अब तक ‘बीसवीं सदी’ दिल्ली में स्थापित हो गया था और धीरे- धीरे उर्दू के तक़रीबन सभी कहानीकार ‘बीसवीं सदी’ में छपने लगे थे। इनमें से कृष्ण चन्दर, बलवन्त सिंह और अमृता प्रीतम प्रमुख थे। उस समय ‘बीसवीं सदी’ की ४०,००० प्रतियाँ हर महीने छप रही थीं, जो किसी भी अखबार के लिए प्रशंसनीय था। बलवन्त सिंह हमारे निजामुद्दीन वाले घर के ‘आउट हाउस’ में रहते और मेरे पिता श्री ख़ुश्तर गिरामी जी रोज एक बॉटल स्कॉच की बलवन्त सिंह को देते थे। मुझे वो शाम याद आती है, जब अमृता प्रीतम हमारे निजामुद्दीन वाले घर खाने पर आयी थी और मेरी माताजी के बनाये हुए चिकन की बहुत तारीफ़ की थी। बाद में मैं अमृता जी को कार से उनके घर हौज खास छोड़ने गया।
यादों की यह डोर बड़ी लम्बी है, इसी कड़ी में एक और नाम याद आता है साहिर लुधियानवी का। साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों पहली बार ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी और बाद में उसे फ़िल्माया भी गया।
राजा मेहदी अली ख़ान जिन्होंने फिल्मों में कई मशहूर गीत लिखे ‘बीसवीं सदी’ में अपनी ताजा गज़ल हमेशा छपने के लिए देते थे।
एक बड़ा ही मजेदार वाकया जो मजेदार के साथ-साथ अबूझ भी रहा। उर्दू के प्रसिद्ध शायर नरेश कुमार ‘शाद’ एक बार नशे की हालत में ‘बीसवीं सदी’ के दफ़्तर आये और मेरी मेज़ पर पेशाब करके बिना कुछ बोले चले गये।
१९६० के दशक तक हिन्दी भारत में सबसे पसंदीदा जुबान बन चुकी थी। देश के संविधान ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया था। अब तक मेरी उम्र तकरीबन २२ वर्ष हो चली थी और मैं सक्रियता के साथ ‘बीसवीं सदी’ के प्रकाशन में पिताजी का सहयोग करने लगा था। एक दिन मैंने पिताजी के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘बीसवीं सदी’ को और लोगों तक पहुँचाने के लिए अब जरूरी हो चला है कि इसका प्रकाशन हिन्दी ज़ुबान में भी किया जाये। पिताजी को यह प्रस्ताव पसन्द आया। इस तरह एक नये सफर की शुरुआत हुई और ‘बीसवीं सदी’ का हिन्दी में प्रकाशन ‘नई सदी’ नाम से शुरू हुआ। वे सभी लेखक जो ‘बीसवीं सदी’ के साथ जुड़े थे मसलन बलवन्त सिंह, कृष्ण चन्दर, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह। उनका सहयोग तो ‘नई सदी’ के लिए बना ही रहा साथ ही कुछ लेखक जैसे फिक्र तौसवीन, जफ़र पयामी, कन्हैया लाल कपूर, हाज़रा मज़रूफ़, मनमथ गुप्ता, डॉ० गोविन्द चातक व अन्य भी हमारे साथ जुड़े। हमारी इन कोशिशों को बल देने के लिए मैं इन सभी का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
लम्हे-लम्हे जुड़कर ही सदियाँ बनाते हैं। ऐसी ही छोटे-बड़े लम्हे मिलकर एक सफर को बीसवीं सदी से नई सदी तक लेकर आये। वह दौर और उससे जुड़े हर वाकये मेरी रूह में बसें हैं, जो मेरे साथ ही रहेंगे। हमेशा। हर घड़ी...
- कृष्ण कुमार चड्डा
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